जिस ग़ज़ल से हमें दिल्लगी हैउस के जिस्म में कहीं दिल नहीं हैं |वो सहरा में लिपटा जल रहा है ख़ुदउसके दरिया में कहीं जल नहीं है |उसके साथ ज़िंदगी है कुछ ऐसीजर्रों की ख़ाक को इंसां कर दे |वो ग़ैरत की बेड़ियाँ गर पहना देतो अजनबियों को भी अपना कर दे |कहानी कुछ ऐसी लिखी है उन्होनेंजो सच को भी सपना कर दे |जिनकी चमक से हमें रोशनी हैउन्हें आज कल रोशनी की कमी है |जिस ग़ज़ल से हमें दिल्लगी हैउस के जिस्म में कहीं दिल नहीं है |– sahar
एक ग़ज़ल
जिन्हें एक मुद्दत से,सजा रखा था पैमाने में,
उन महफिलों ने आज जाकर,दम तोड़ा मैखाने में ।
बहुत अंधेरों से उजालों में, खींच लाया हूँ इस रात को,
कोई उम्मीद जिंदा है, आज भी इस दीवाने में ।
वो रेत में ढूंढता था, न जाने कौन सा दरिया,
एक बूंद तक न मिली जिसे सारे ज़माने में ।
लापता हो गयी उसकी आँखों से दीवानगी,
इस दुनिया के धुएँ के कारखाने में ।
फिर भी, दिल खोलकर बाँटता रहा वो खुशियों की दौलत,
कोई अजीब सुकूं मिलता था उसे खुद को लुटाने में ।
अपनी मोहब्बत का ज़िक्र अब तलक़ किसी को न किया,
वो शिकस्त कहाँ याद करने में जो खायी भूल जाने में ।
ख़ामोशी से बैठकर वो हर रोज़ शब से सहर,
ढूँढ़ता रहा महफिलों को पैमाने में।
– सहर
featured photograph ©mayank mishra.
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